सुप्रीम कोर्ट ने हाल के एक फैसले में गृहिणियों को लेकर जो टिप्पणी की है, उससे न सिर्फ नीति-निर्माताओं की बल्कि पूरे समाज की आंखें खुल जानी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि एक हाउस वाइफ के काम को अनुत्पादक मानना महिलाओं के प्रति भेदभाव को दर्शाता है। दुर्भाग्य से यह भेदभाव समाज में तो है ही सरकार के स्तर पर भी है। कोर्ट ने इस बात पर हैरानी जताई कि जनगणना तक में घरेलू महिलाओं के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया झलकता है।
2001 की जनगणना में खाना पकाने, बर्तन साफ करने, बच्चों की देखभाल करने, पानी लाने, जलावन एकत्र करने जैसे घरेलू काम करने वाली महिलाओं को गैर-श्रमिक वर्ग में शामिल किया गया है और उनकी तुलना भिखारियों, वेश्याओं और कैदियों जैसे अनुत्पादक समझे जाने वाले वर्ग से की गई है। इस दृष्टिकोण को पूरी तरह गलत बताते हुए अदालत ने उस रिसर्च की चर्चा की जिसमें भारत की करीब 36 करोड़ गृहिणियों के कार्यों का वार्षिक मूल्य लगभग 612.8 अरब डॉलर आंका गया है।
कोर्ट ने कहा कि संसद को कानूनों में संशोधन करना चाहिए ताकि दुर्घटना या वैवाहिक संपत्ति के बंटवारे के समय उनके कार्यों का वैज्ञानिक नजरिए से मूल्यांकन संभव हो सके। कोर्ट ने एक दुर्घटना में मारी गई उत्तर प्रदेश की रेणु के परिजनों को दी जाने वाली मुआवजे की राशि ढाई लाख से बढ़ाकर साढ़े छह लाख रुपये करने का आदेश देते हुए यह विस्तृत टिप्पणी की।
दरअसल उसने एक सामाजिक सच की ओर हमारा ध्यान खींचा है। घरेलू काम की कीमत न आंके जाने के कारण ही स्त्रियां उपेक्षित रही हैं। दरअसल हमारे पुरुष प्रधान समाज में हाउस वाइफ के कार्यों को दोयम दर्जे का समझा जाता है और यह माना जाता है कि यह सब तो उन्हें किसी भी हाल में करना ही है।
लेकिन बदले में उन्हें अपेक्षित सम्मान और स्नेह तक नहीं मिलता। यह स्थिति उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से तोड़ देती है। सचाई यह है कि परिवार और समाज की नींव महिलाओं के उन कार्यों पर टिकी है, जो कहीं दर्ज नहीं होते। ग्रामीण जीवन में तो महिलाओं के योगदान के बगैर कृषि कार्य संभव ही नहीं हैं।
शहरों में भी स्थिति अलग नहीं है। हाल के वर्षों में शिक्षित औरतों के एक बड़े तबके ने रोजी-रोजगार के नए-नए क्षेत्रों में प्रवेश किया है लेकिन एक बड़ी संख्या उनकी भी है, जिन्होंने सोच-समझकर हाउस वाइफ रहना स्वीकार किया है ताकि वे घर-परिवार को पर्याप्त समय दे सकें और अपने बच्चों का भविष्य बना सकें। वे रोजमर्रा के जीवन को बेहतर बनाने के लिए जो योगदान दे रही हैं उसका महत्व किसी भी रूप में कम नहीं है।
यह अलग बात है कि विभिन्न उत्पादक सेक्टरों की तरह उनके काम को आंकने का कोई ठोस पैमाना हमारे पास नहीं है। सबसे पहले तो मन को इसका पैमाना बनाना होगा। अगर हम मन से उनके योगदान को महत्व देना शुरू कर देंगे तो कई समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी।
स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले घरेलू कामों का महत्व पुरुषों के व्यवसायिक कामों से कहीं भी कम नहीं है।
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