Tuesday, July 27, 2010

अगर न निकले एटीएम से पैसा

दरियागंज में रहनेवाले अशोक लूथरा एक बार अपने बैंक से अलग किसी दूसरे एटीएम से पैसे निकालने पहुंचे। पिन,अमाउंट आदि डालने के बाद स्लिप तो निकल आई, लेकिन एटीएम से पैसे नहीं निकले। स्लिप देखकर उनका सिर चकरा गया। पांच हजार रुपये अकाउंट से कम हो गए थे, जबकि मशीन से पैसे नहीं निकले। एटीएम बूथ पर न तो कोई फोन मौजूद था, न ही कोई जानकारी कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए। पूरी रात उन्होंने करवटें बदल-बदल कर गुजारी। सुबह अपनी ब्रांच को लिखित में शिकायत की। करीब 40 दिन बाद उनके अकाउंट में पैसे वापस आए।

एटीएम कार्ड के प्रचलन से बैंकों ने अपना बोझ काफी हद तक कम कर लिया है। इसका फायदा कस्टमर्स को भी मिला है, लेकिन एटीएम कार्ड के जरिए धोखाधड़ी और हेराफेरी की घटनाएं भी काफी बढ़ गई हैं। एटीएम कार्ड चोरी हो जाना, पासवर्ड का पता कर एटीएम से पैसे निकालना आदि घटनाएं आम हो गई हैं। एटीएम का इस्तेमाल करते वक्त क्या सावधानियां रखनी चाहिए और क्या हैं हमारे अधिकार, आइए जानते हैं:

अधिकार

- आप अपने बचत खाते पर इश्यू एटीएम कार्ड से किसी दूसरे बैंक के एटीएम से महीने में पांच बार मुफ्त ट्रांजैक्शन कर सकते हैं। इसके बाद 20 रुपये प्रति ट्रांजैक्शन चार्ज किए जाएंगे।

- आप किसी भी बैंक के एटीएम से कभी भी बैलेंस चैक कर सकते हैं। इसके लिए कोई फीस नहीं है।

- अगर दूसरे बैंक के एटीएम से पैसा निकालते वक्त रकम अकाउंट से कट जाए और आपको न मिले तो आप अपनी ब्रांच को शिकायत करें। शिकायत किए जाने के अगले 12 वर्किंग डेज में आपके अकाउंट में पैसा वापस आ जाना चाहिए। अगर इतने दिनों में पैसा न आए तो आप इसके बाद के दिनों के लिए 100 रुपये रोजाना हर्जाना वसूलने के हकदार हैं।

- सभी बैंकों के लिए यह जरूरी है कि वे एटीएम मशीन पर ऐसा रैंप उपलब्ध कराएं ताकि अपाहिज वील चेयर पर बैठे-बैठे एटीएम यूज कर सकें।

- सभी बैंकों के लिए यह जरूरी है कि वे नए लगनेवाले एटीएम में से एक-तिहाई में टॉकिंग ब्रेल कीपैड लगाएं ताकि दृष्टिहीन लोग आसानी से एटीएम ऑपरेट कर सकें। कोई भी बैंक किसी दृष्टिहीन शख्स को एटीएम कार्ड इश्यू करने से इनकार नहीं कर सकता।

- एटीएम रूम में यह सूचना लिखी होनी चाहिए कि फेल एटीएम ट्रांजेक्शन के लिए अपने बैंक की उस ब्रांच को सूचित करें, जहां से आपको एटीएम कार्ड इश्यू हुआ है। एटीएम रूम में एटीएम प्रवाइडर बैंक की सहायता डेस्क का फोन नंबर व उस अधिकारी का नाम व पता लिखा होना चाहिए, जिसे परेशानी होने पर शिकायत दर्ज कराई जा सके।

अगर कार्ड मशीन में फंस जाए/खो जाए

- इस स्थिति में फौरन अपने बैंक के टोल फ्री नंबर पर डायल कर कार्ड को ब्लॉक (बंद) करा दें। यहां आपको एक शिकायत नंबर दिया जाएगा। इसे जरूर नोट कर लें।

- जितना जल्दी मुमकिन हो, अपने बैंक को लिखित में जानकारी देकर उसकी कॉपी रिसीव करा लें। बाद में आप नए कार्ड के लिए अप्लाई कर सकते हैं।

- अगर एटीएम बैंक की किसी ब्रांच में लगा है तो मशीन में कार्ड फंसने की स्थिति में अपने फोटो आई-कार्ड के साथ ब्रांच मैनेजर से मिलकर अपना कार्ड हासिल कर सकते हैं।

यह भी जानें

- एटीएम कार्ड के पिन गुम होने की लिखित शिकायत करने के एक हफ्ते में नया पिन नंबर इश्यू कर दिया जाता है। बैंक द्वारा इश्यू पिन नंबर को जितना जल्दी हो, बदल लें।

- अगर एटीएम से ट्रांजैक्शन के दौरान कोई परेशानी आए तो बैंक कर्मचारी को भी अपना पिन न बताएं।

- पिन को एटीएम कार्ड के कवर आदि पर कभी न लिखें।

- एटीएम में कार्ड डाले जाने पर यदि इनवैलिड कार्ड शो करे तो अपने बैंक के एटीएम पर कार्ड फिर से ट्राई करें। कई बार तकनीकी दिक्कत से ऐसा होता है। अगर यह मेसेज बार-बार आए तो अपने कार्ड को ब्रांच से रिप्लेस करा लें।

- अपने बैंक के एटीएम से रोजाना 15 से 25 हजार रुपये निकाल सकते हैं। लेकिन दूसरे बैंक के एटीएम से अधिकतम दस हजार रुपये ही निकाल सकते हैं। यह सूचना एटीएम पर डिस्प्ले होती है।

- अगर ट्रांजैक्शन होने पर एटीएम से पैसा न निकले तो ट्रांजैक्शन स्लिप को संभाल कर रखें। अच्छा होगा, इसकी फोटोकॉपी करा लें।

- नया एटीएम कार्ड मिलने पर सबसे पहले उसके पीछे दिए गए स्पेस पर साइन करें।

- महीने में एक बार अपनी पासबुक में एंट्री जरूर कराएं। अगर आपके एटीएम ट्रांजैक्शन में कोई गड़बड़ हुई है तो फौरन ब्रांच मैनेजर को सूचित करें।

- सभी एटीएम कार्ड पर वलिडिटी लिखी होती है। इसके खत्म होने से पहले अपनी ब्रांच को सूचित कर नया एटीएम इश्यू करा लें, वरना ऐसे कार्ड को मशीन जब्त कर लेती है।

- अगर एटीएम कार्ड मिलने के एक हफ्ते तक पिन न मिले तो अपनी ब्रांच से जरूर संपर्क करें।

- पिन के लिफाफे की सील जरूर जांच लें। अगर वह कहीं से खुला या कटा-फटा है तो फौरन ब्रांच मैनेजर को सूचित कर दूसरे नंबर की डिमांड करें।

- आपके कार्ड से किसी भी तरह हुए गलत ट्रांजैक्शन के लिए बैंक जिम्मेदार नहीं है। जाने-अनजाने में हुई किसी भी गलती का भुगतान आपको ही करना होगा।

- एटीएम कार्ड में मैग्नेटिक पट्टी होती है। इसे हमेशा सुरक्षित स्थान पर रखें और टीवी से इसकी दूरी बनाए रखें।

- अगर आपके पास वक्त है तो अपने बैंक के एटीएम से ही पैसा निकालें। ऐसी स्थिति में गड़बड़ी होने पर आपका पैसा अगले वर्किंग डे पर मिल जाएगा, जबकि दूसरे बैंक का एटीएम होने पर वक्त ज्यादा लगता है।

हेल्पलाइन

ट्रांजैक्शन फेल होने पर अगर सूचित किए जाने के 12 वर्किंग डेज के बाद भी आपके अकाउंट में पैसा वापस न आए या बैंक हर्जाना न दे तो आप अपने राज्य के बैंकिंग ओम्बड्समैन को सभी डॉक्युमेंट्स अटैच कर लिखें। दिल्ली, हरियाणा व गाजियाबाद जिले के सभी बैंकों के कस्टमर्स अपनी ऐसी शिकायतों के लिए यहां लिख सकते हैं -

बैंकिंग ओम्बड्समैन, रिजर्व बैंक बिल्डिंग
सेकंड फ्लोर, संसद मार्ग, नई दिल्ली - 110001
फोन - 011-23730632/ 633/ 6270-71
फैक्स - 011- 23725218

Monday, July 26, 2010

हाउस वाइफ की हैसियत

सुप्रीम कोर्ट ने हाल के एक फैसले में गृहिणियों को लेकर जो टिप्पणी की है, उससे न सिर्फ नीति-निर्माताओं की बल्कि पूरे समाज की आंखें खुल जानी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि एक हाउस वाइफ के काम को अनुत्पादक मानना महिलाओं के प्रति भेदभाव को दर्शाता है। दुर्भाग्य से यह भेदभाव समाज में तो है ही सरकार के स्तर पर भी है। कोर्ट ने इस बात पर हैरानी जताई कि जनगणना तक में घरेलू महिलाओं के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया झलकता है।

2001 की जनगणना में खाना पकाने, बर्तन साफ करने, बच्चों की देखभाल करने, पानी लाने, जलावन एकत्र करने जैसे घरेलू काम करने वाली महिलाओं को गैर-श्रमिक वर्ग में शामिल किया गया है और उनकी तुलना भिखारियों, वेश्याओं और कैदियों जैसे अनुत्पादक समझे जाने वाले वर्ग से की गई है। इस दृष्टिकोण को पूरी तरह गलत बताते हुए अदालत ने उस रिसर्च की चर्चा की जिसमें भारत की करीब 36 करोड़ गृहिणियों के कार्यों का वार्षिक मूल्य लगभग 612.8 अरब डॉलर आंका गया है।

कोर्ट ने कहा कि संसद को कानूनों में संशोधन करना चाहिए ताकि दुर्घटना या वैवाहिक संपत्ति के बंटवारे के समय उनके कार्यों का वैज्ञानिक नजरिए से मूल्यांकन संभव हो सके। कोर्ट ने एक दुर्घटना में मारी गई उत्तर प्रदेश की रेणु के परिजनों को दी जाने वाली मुआवजे की राशि ढाई लाख से बढ़ाकर साढ़े छह लाख रुपये करने का आदेश देते हुए यह विस्तृत टिप्पणी की।

दरअसल उसने एक सामाजिक सच की ओर हमारा ध्यान खींचा है। घरेलू काम की कीमत न आंके जाने के कारण ही स्त्रियां उपेक्षित रही हैं। दरअसल हमारे पुरुष प्रधान समाज में हाउस वाइफ के कार्यों को दोयम दर्जे का समझा जाता है और यह माना जाता है कि यह सब तो उन्हें किसी भी हाल में करना ही है।

लेकिन बदले में उन्हें अपेक्षित सम्मान और स्नेह तक नहीं मिलता। यह स्थिति उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से तोड़ देती है। सचाई यह है कि परिवार और समाज की नींव महिलाओं के उन कार्यों पर टिकी है, जो कहीं दर्ज नहीं होते। ग्रामीण जीवन में तो महिलाओं के योगदान के बगैर कृषि कार्य संभव ही नहीं हैं।

शहरों में भी स्थिति अलग नहीं है। हाल के वर्षों में शिक्षित औरतों के एक बड़े तबके ने रोजी-रोजगार के नए-नए क्षेत्रों में प्रवेश किया है लेकिन एक बड़ी संख्या उनकी भी है, जिन्होंने सोच-समझकर हाउस वाइफ रहना स्वीकार किया है ताकि वे घर-परिवार को पर्याप्त समय दे सकें और अपने बच्चों का भविष्य बना सकें। वे रोजमर्रा के जीवन को बेहतर बनाने के लिए जो योगदान दे रही हैं उसका महत्व किसी भी रूप में कम नहीं है।

यह अलग बात है कि विभिन्न उत्पादक सेक्टरों की तरह उनके काम को आंकने का कोई ठोस पैमाना हमारे पास नहीं है। सबसे पहले तो मन को इसका पैमाना बनाना होगा। अगर हम मन से उनके योगदान को महत्व देना शुरू कर देंगे तो कई समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी।

Sunday, July 25, 2010

सिंगापुर में बढ़ी हिंदी की लोकप्रियता

सिंगापुर के शिक्षा मंत्री एन ई हेन ने कहा है कि देश में भाषा के रूप में हिंदी सीखने की ललक तेजी से बढ़ रही है।

हिंदी सीखने वालों में से कुछ का मानना है कि इस भाषा को समझ कर वे बॉलीवुड संगीत का अधिक आनंद ले पाएँगे जबकि कुछ भारत के आर्थिक शक्ति के रूप में उदय के कारण इसे महत्वपूर्ण मानते हैं।

हेन ने हिंदी केन्द्र दिवस को संबोधित करते हुए कहा ‍कि यह निस्संदेह बॉलीवुड की बढ़ती लोकप्रियता का एक प्रमाण है। कुछ के लिए तो यह लोकप्रिय गाने समझने का जरिया है। इसके अलावा इसकी सांस्कृतिक भूमिका है।

बहरहाल, कई लोग मानते हैं कि हिंदी एक आर्थिक संपदा है। खासकर भारत के उदय के कारण। हेन ने गैर हिंदी भाषी लोगों द्वारा समाज के लिए चलाए जा रहे हिंदी पाठ्यक्रमों तथा भाषा के प्रति बढ़ती रूचि की सराहना की।

हेन ने आश्वासन दिया कि हिंदी के साथ साथ बंगाली, गुजराती, पंजाबी और उर्दू को भी तमिल की तरह मातृभाषा की श्रेणी में रखते हुए उन्हें सीखने के लिए प्रेरित किया जाएगा। सिंगापुर सरकार चार भाषाओं अंग्रेजी, मलय, चीनी और तमिल को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता देती है।

उन्होंने कहा कि मैं इस बात की ओर प्रसन्नता से ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि हिंदी समाज अपने समानांतर हिंदी कार्यक्रम के जरिये हमारे प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूलों में हमारे छात्रों को हिंदी पढ़ने के लिए पर्याप्त अवसर देने के अपने प्रयासों में दिनोंदिन मजबूत हो रहा है।

उन्होंने बताया कि चार और स्कूल इस साल हिंदी पढ़ाने वाले कार्यक्रम में शामिल हो गए, जिससे हिंदी कक्षाओं वाले स्कूलों की संख्या बढ़कर 53 हो गई है।

मंत्री ने कहा कि सिंगापुर में सात हिंदी केंद्र चलाए जा रहे हैं। इन केंद्रों में नजदीक रहने वाले बच्चे हिंदी सीखते हैं।

हेन ने कहा कि सिंगापुर में रहने के कारण हम भाग्यशाली हैं कि हमारा समाज बहु नस्ली एवं बहुसांस्कृतिक है। इसके कारण हमें ऐसे समुदायों का अनूठा लाभ मिला है जिनकी भाषाएं एवं संस्कृति दुनिया के प्रमुख विकास केन्द्रों से जुड़ी हैं।

सिंगापुर सरकार बंगाली, गुजराती, हिंदी, पंजाबी की शिक्षा को सहयोग देती है जिसके लिए डेढ़ लाख सिंगापुर डॉलर की मदद दी जाती है। इन भाषाओं को 1990 के दशक से राष्ट्रीय विद्यालय परीक्षाओं में भी शामिल किया गया है। (भाषा)

Resource: http://msnyuva.webdunia.com/news/headlines/1007/25/1100725007_1.htm

Monday, July 12, 2010

Leaders and Perspectives

Leaders evolve and in this journey one tends to gain a variety of perspectives. These perspectives should not remain forever and make the Leader adopt a one-style-fits-all approach

Take a look at some of the iconic brands in the business of automobiles, electronics, wrist watches or running shoes. How did they stand the test of time and become “best from the rest”? While there could be many contributing reasons, the most significant factor is their capacity to re-invent themselves.

Likewise, successful Leaders are those who have the uncanny ability to constantly re-invent themselves.

We recently conducted a study on the transformation of Managers into effective Leaders. It was observed that the ability to change, alter or re-frame perspectives was the key to re-invention of a Leader. Let me dwell more on this rather intriguing subject – PERSPECTIVES. The dictionary defines Perspective as “a way of regarding situations

or facts and judging their relative importance” and Thesaurus refers to it as “angle, attitude, broad view, outlook, frame of reference..."

Leaders evolve and in this journey one tends to gain a variety of perspectives. These perspectives should not remain forever and make the Leader adopt a one-style-fits-all approach. The challenge is to re-visit these perspectives depending on the context of your role, your organisation or maybe even the environment. Let me share a few instances that substantiate the importance of I know of a CEO who had this problem of “batch parity” when it comes to either hiring or promotion of talent. The CEO had spent over 20 years in a large MNC and taken over reins in a hi-growth Indian family owned organisation. He came from a school of thought that practiced batch parity and was deeply influenced by this outdated practice. In his new environment, the culture was different, it was all about performance and result orientation. The belief was that anyone who was “ready to take risks and deliver” was the right person. After undergoing many conflicts and confusion, the CEO realised that there was only one way – he had to shred his past learnings and think anew. He shifted his perspective – we need people who are ready to perform and that batches do not matter. A year later the same CEO further brought in a new dimension to the company’s talent development strategy. Until then the selection of entry level talent was from premier Institutes or B-Schools. The new CEO decided to seek talent from Tier-2 Institutes. His new perspective was that there is a lot of “hidden” talent in such institutes and that one should not be biased towards ivy-league schools.

Another example from a Client organisation. A focus group study in a reputed MNC revealed that the organisation was not transparent on Compensation matters. It was kept “confidential” and hush-hush. There have been no dialogue or open forum discussions on compensation. The Managers found it as a lack of transparency and did not really buy-in to the philosophy of its intended pay-for-performance culture. The Leadership team decided to openly communicate the company’s compensation policies. In a video conference the Leadership team explained in detail its overall compensation strategy. In a subsequent employee satisfaction survey, this organisation was rated high on openness and transparency!

I know of a CEO who regularly tours the marketplace and each time he came back with newer and fresher insights on its customers, competitors and competitors. Yet another Business Leader had this habit of taking out each of his team members for lunch every fortnight and he brought back loads of feedback on subjects ranging from product innovation to our workplaces are getting to be more and more global and diverse. Leaders need to open up and first develop “diversity in thought” as a starting point to address business, people and environment issues. Such efforts will become winning ways of winning leaders. I am reminded of the thousand year old story of the “Blindmen and the Elephant." Each man saw the elephant as something different, while each of them were right in parts, none was wholly right. There is never just one way to look at something – there are always different meanings, perceptions and The moments of truth on perspectives is best captured in the hoardings we see as we alight at the Indian airports these days “Be the change you want to see in the world “!

Thursday, July 1, 2010

ईर्ष्या का बोझ

एक बार एक गुरु ने अपने सभी शिष्यों से अनुरोध किया कि वे कल प्रवचन में आते समय अपने साथ एक थैली में बड़े-बड़े आलू साथ लेकर आएं। उन आलुओं पर उस व्यक्ति का नाम लिखा होना चाहिए, जिनसे वे ईर्ष्या करते हैं। जो शिष्य जितने व्यक्तियों से ईर्ष्या करता है, वह उतने आलू लेकर आए।

अगले दिन सभी शिष्य आलू लेकर आए। किसी के पास चार आलू थे तो किसी के पास छह। गुरु ने कहा कि अगले सात दिनों तक ये आलू वे अपने साथ रखें। जहां भी जाएं, खाते-पीते, सोते-जागते, ये आलू सदैव साथ रहने चाहिए। शिष्यों को कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन वे क्या करते, गुरु का आदेश था। दो-चार दिनों के बाद ही शिष्य आलुओं की बदबू से परेशान हो गए। जैसे-तैसे उन्होंने सात दिन बिताए और गुरु के पास पहुंचे। गुरु ने कहा, 'यह सब मैंने आपको शिक्षा देने के लिए किया था।

जब मात्र सात दिनों में आपको ये आलू बोझ लगने लगे, तब सोचिए कि आप जिन व्यक्तियों से ईर्ष्या करते हैं, उनका कितना बोझ आपके मन पर रहता होगा। यह ईर्ष्या आपके मन पर अनावश्यक बोझ डालती है, जिसके कारण आपके मन में भी बदबू भर जाती है, ठीक इन आलूओं की तरह। इसलिए अपने मन से गलत भावनाओं को निकाल दो, यदि किसी से प्यार नहीं कर सकते तो कम से कम नफरत तो मत करो। इससे आपका मन स्वच्छ और हल्का रहेगा।' यह सुनकर सभी शिष्यों ने आलुओं के साथ-साथ अपने मन से ईर्ष्या को भी निकाल फेंका।

संकलन: लखविन्दर सिंह