Saturday, August 14, 2010

झंडा फहरा कर ही अन्न ग्रहण करते थे लोग

आजादी के दिन यानी 15 अगस्त 1947 और उसके बाद लगभग डेढ़ दशक तक लाल किले के आसपास स्वतंत्रता का समारोह एक मेले में तब्दील हो जाता था। उन दिनों लाल किले पर यह आयोजन देखने के लिए लोगों की भारी भीड़ उमड़ती थी। लोग प्रधानमंत्री के भाषण को बेहद गंभीरता से सुनते और उस पर अमल करने की कोशिश करते थे।

उन्हें इस बात की चिंता रहती थी कि कहीं प्रधानमंत्री का भाषण छूट न जाए। लोग समय से पहले ही वहां पहुंच जाते थे। उन दिनों आज जैसी बसों और ट्रेनों की सुविधा नहीं थी। 50-60 किलोमीटर दूर रहने वाले बहुत से लोग साइकलों से लाल किले तक चले आते थे। उनकी साइकलें दरियागंज चौक पर खड़ी कर दी जाती थीं। उसके बाद वे आजादी के गीत गुनगुनाते हुए लाल किले की ओर कूच करते थे। समारोह में शामिल होने के लिए लोग रंग-बिरंगी खादी की पोशाक पहन कर आते थे। कोई कंधे पर बच्चा बैठाए हुए, तो कोई तीन-चार बच्चों का हाथ थामे। तब बच्चों में भी गजब का उत्साह दिखता था।

लाल किले के पास पूरे हिंदुस्तान की झलक दिखाई देती थी। पुरानी दिल्ली में जबर्दस्त पतंगबाजी हुआ करती थी। आसमान पतंगों से भर जाता था। लाल किला मैदान में भी सैकड़ों लोग पतंग उड़ाते दिखते। आसपास के देहातों में भी लोगों में आजादी का जश्न देखने का काफी उत्साह होता था।

उनमें महिलाएं भी काफी होती थीं। वे बैलगाड़ियों में भरकर आजादी का पर्व देखने के लिए लाल किला आती थीं। वे और लोगों के साथ रात में ही निकल पड़ती थीं। सुबह- सबेरे बहुत सी महिलाएं लाल किले की ओर पैदल कूच करती थीं। इनमें बुजुर्ग महिलाएं लालकिला पहुंच जाती थीं तो बाकी जनाना पार्क (सुभाष पार्क के सामने पर्दा बाग) में रुक जाती थीं।

वहां लोक गीतों का दौर चलता था। बच्चे खूब खरीदारी करते थे। उनके लिए रंग-बिरंगे मिट्टी के खिलौने, पक्षियों और जानवरों के रूप में बनी मिठाइयां, सारंगी, बांसुरी, मोटर गाड़ी खरीदी जाती थी। बहुत सी महिलाएं पुरानी दिल्ली के बाजारों में खरीदारी करने निकल जाती थीं।

उस जमाने में लाल किले के सामने सिर्फ चांदनी चौक था। जामा मस्जिद के आसपास का स्थान बिल्कुल खाली था। वहां आज की तरह न तो मीना बाजार था, न ही कोई अन्य बाजार। पूरा इलाका खुला हुआ था। उस वक्त न तो सुरक्षा की बंदिशें थी और न ही किसी तरह का खतरा महसूस होता था।

जिधर देखो, गांधी टोपी पहने लोगों की भीड़ नजर आती थी। जिसे जहां जगह मिलती वह वहीं जमीन पर बैठकर भाषण सुनने लग जाता। वहां भी कहीं कोई सुरक्षा का घेरा नहीं होता था। पुरानी दिल्ली के आसपास बड़ी संख्या में लाउडस्पीकर लगे होते थे। लोग आराम से भाषण सुनते थे।

स्वतंत्रता दिवस के दिन बहुत से लोग समारोह समाप्त होने से पहले खाना - पीना ठीक नहीं मानते थे , बिल्कुल किसी व्रत की तरह। जैसे सत्यनारायण भगवान की कथा या अन्य अनुष्ठान समाप्त होने तक लोग भोजन नहीं करते उसी तरह यह समारोह संपन्न होने तक लोग खाना नहीं खाते थे।

लेकिन समारोह समाप्त होते ही वे लजीज पकवानों पर टूट पड़ते थे। वहां कहीं चाट - पकौड़ी बिक रही होती थी तो कहीं फलों के जूस और फल। गुड़ - चने और मसालेदार छोले भी मिलते थे। बुजुर्ग बताते हैं कि उस वक्त एक आने यानी 6 पैसे में कई लोगों का पेट भर जाता था। जामा मस्जिद के आसपास भेड़ और मुर्गों का तमाशा लगता था। लोग मुर्गे और भेड़ की लड़ाई देखने में ऐसे मशगूल हो जाते कि उन्हें पता नहीं चल पाता था कि कि दिन कब निकल गया।

लाल किले पर समारोह के बाद लोगों को रेडियो से समाचार सुनने का इंतजार रहता था। जो लोग किसी कारण से समारोह में शामिल नहीं हो पाते थे , वे भाषण सुनने के लिए रेडियो के आसपास जमा हो जाते थे। क्योंकि उन दिनों घर - घर में रेडियो नहीं थे। एक रेडियो के आसपास भारी भीड़ जमा हो जाती। लोग पूरी शांति से भाषण सुनते थे। फिर कई दिनों तक भाषण पर चर्चा होती थी।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने 20 फरवरी 1947 को घोषणा की थी कि जून 1948 तक ब्रिटिश सरकार भारत को मुक्त कर देगी। लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन की अगुआई कर रहे नेताओं को भरोसा नहीं था कि इस दिन हम अंग्रेजों से आजाद हो पाएंगे।

लगभग एक साल पहले तक यानी 1946 तक पंडित नेहरू सहित अनेक कांग्रेसी नेताओं को यही लगता रहा कि आजादी की लड़ाई ठीक तरह से चलती रही तो अगले दो से पांच वर्षों में सफलता मिल सकती है।

इस बीच परिस्थितियां तेजी से बदलीं। एक ओर देश में हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच तनाव और हिंसा की घटनाएं शुरू हो गईं , तो दूसरी ओर बहुत से प्रमुख भारतीय अफसर खुलकर आंदोलनकारियों का साथ देने लगे। विश्वयुद्ध के कारण ब्रिटिश सरकार काफी दबाव में थी। अब उसके लिए भारत के शासन को संभालना आसान नहीं रह गया था। वहां अब यह राय मजबूत बनने लगी थी कि सरकार को भारत को आजादी दे देनी चाहिए।

अंतत : भारत को आजादी मिली लेकिन उसका विभाजन हुआ और पाकिस्तान बना। 14 अगस्त को पाकिस्तान की आजादी के समारोह में शामिल होने के बाद लॉर्ड माउंटबैटन भारत की आजादी के समारोह में शामिल होने दिल्ली आए। यहां कई जगह समारोह आयोजित किए गए। इंडिया गेट पर भी समारोह का आयोजन किया गया , जिसमें काफी भीड़ थी। समारोह में पंडित जवाहर लाल नेहरू , लॉर्ड माउंटबैटन सहित तमाम नेता शामिल हुए।

1932 बैच के आईसीएस अधिकारी बदरुद्दीन तैयब जी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि उस दिन इंडिया गेट में आयोजित समारोह में इतनी भीड़ थी कि माउंटबैटन और उनकी पत्नी को सभा स्थल तक ले जाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। जहां से जवाहर लाल नेहरू भाषण दे रहे थे , वहां तक पहुंचने में काफी परिश्रम करना पड़ा था। पहली बार जब लोगों ने तिरंगा झंडा फहराते हुए देखा तो उनके चेहरे पर अजीब सी चमक थी।

और उस दिन के बारे में माउंटबैटन ने लिखा कि स्थिति अत्यंत विस्फोटक थी। इसलिए भारत छोड़ने में ब्रिटेन ने ज्यादा देर नहीं की। बल्कि ब्रिटेन को भारत इससे पहले ही छोड़ देना चाहिए था। भारत में अनेक स्थानों पर सांप्रदायिक दंगे भड़क गए थे। कानून और व्यवस्था की स्थिति काफी बिगड़ चुकी थी।

आशंका थी कि कहीं ऐसी चिंताजनक स्थिति न पैदा हो जाए , जिससे नियंत्रण का दायित्व निभाने की क्षमता ही नहीं रहे। हालत यह थी कि प्रशासनिक सेवा और फौज के अधिकांश अधिकारी सांप्रदायिक गुटों में बंट चुके थे। जिस सांप्रदायिकता को ब्रिटिश शासकों ने अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए अपनाया था उसी के कारण उसे बाहर का रास्ता देखना पड़ा।

और जब पूरा देश जश्न में डूबा हुआ था , गली - मोहल्लों में मिठाइयां बंट रही थीं , गांधी उपवास कर रहे थे। उनके साथ थे कलकत्ता के पूर्व मेयर व जिला मुस्लिम लीग के तत्कालीन सेक्रेटरी एम . एस . उस्मान ।

वीरेंद्र कुमार

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