इस धरा का लिबास पर्यावरण है… पर्यावरण और हमारा… शरीर और आत्मा का रिश्ता है… जिस तरह यह सत्य है कि ईश्वर एक है ठीक उसी तरह यह भी सत्य है कि जिस दिन इस धरती के लिबास यानि पर्यावरण संतुलन बिगड़ जाएगा उस दिन इंसान भी अपनी पहचान इस धरती से खो देगा। आज जिस तरह से आज लगातार पेड़ कट रहे हैं, पृथ्वी की गोद को चीरकर खनिजों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, इस आधुनिकीकरण की दौड़ में पड़कर इंसान मशीनीकरण का गुलाम होता जा रहा है और इस मशीनीकरण ने इंसान के लिए इस धरती पर सबसे ज्यादा जरूरी स्वच्छ पर्यावरण का संतुलन बिगाड़कर रख दिया है। अगर धरती के लिबास पर्यावरण के साथ इंसान इसी तरह खिलवाड़ करता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब इंसान को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए पृथ्वी को छोड़कर… किसी और गृह पर शरण लेनी पड़ेगी। आज पूरी दुनिया के पर्यावरण वैज्ञानिक उत्तरी धुव्र को लेकर बेहद चिंतित हैं। उनकी चिंता एकदम सही है, क्योंकि उत्तरी धुव्र पर हमारी जीवन रक्षक परत ओजोन में आ छेद के कारण सूरज की हानिकारक अल्ट्रा वायलेट किरणें सीधे तौर पर पृथ्वी पर पड़नी शुरू हो गई हैं और ये आने वाली इंसानी नस्लों के लिए भारी चिंता का विषय बन चुका है। आज जिस तरह से पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है और हिमखंड पिघल रहे हैं तो वो दिन दूर नहीं जब एक दिन पूरी दुनिया जलमन हो जाएगी।
अगर इसी तरह से इंसान पर्यावरण के प्रति अपनी आंखें मूंदे रहा तो वो दिन दूर नहीं जब इंसान स्वच्छ आबो-हवा के लिए तरस जाएगा। स्वच्छ वायु में सांस लेना इंसान की आने वाली नस्लों के लिए मात्र एककिताबी विषय बनकर रह जाएगा और अगर इंसान की इस अंधी आधुनिकीकरण व मशीनीकरण की दौड़ केचक्कर में पड़कर इसी तरह पर्यावरण की अनदेखी करता रहा तो इंसान की आने वाली नस्लें स्कूल बैग केबजाय अपने कंधे पर सांस लेने के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर लादकर अपने घर से निकलने को मजबूर होंगी। इंसान पर्यावरण असंतुलन के कारण वक्त से पहले इस दुनिया से रुख्सत हो जाएगा और जो बच जाएंगे वो प्रदूषण के कारण दमा, चेस्ट कैंसर आदि व ओजोन परत केनष्ट हो जाने के कारण पृथ्वी पर सूरज की हानिकारक अल्ट्रा वायलेट किरणों के कारण स्किन कैंसर के साथ-साथ दूसरी भयंकर बीमारियों के साथ इस धरती पर अपना जीवन गुजारने को बाध्य होगा। इंसान अपने वक्ती फायदे के लिए ईश्वर के बनाए नियत तोड़ता है और इसका जीता-जागता उदाहरण है प्रकृति और पर्यावरण के साथ खिलवाड़।
इस धरती पर हर प्राणी का आने व जाने का मार्ग एक ही है और दुनिया का हर इंसान चाहे वो किसी भी मजहब को मानने वाला हो, वो इस बात पर यकीन करता है कि ईश्वर एक है और अगर दुनिया के किसी भी मजहब की कोई भी पवित्र धार्मिक किताब को ध्यान से पढ़ें तो ईश्वर ने पर्यावरण प्रेम के लिए पैगाम जरूर भेजे हैं। अल्लाह ने पवित्र कुरान में कहा है कि-क्या तुम नहीं देखते कि अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया, फिर उनको स्त्रोतों और निर्झरों और नदियों के रूप में प्रवाहित किया-
अगर इस आयत पर गौर किया जाए तो पर्यावरण संतुलन के सभी बांधे-बंधाए नियम प्रस्तुत होते हैं, लेकिन इंसान की तरक्की की भूख ने पेड़ और जंगल कम कर दिए हैं, जिसकी वजह से बारिश कम होती है। तालाबों को पाट दिया और बची-खुची नदियों की जमीनों पर इंसानी ऐशो-आराम का साजो-सामान तामीर करना शुरू कर दिया है। इसका जीता-जागता उदाहरण है दिल्ली से गुजरती यमुना नदी की जमीन पर कॉमनवेल्थ गेम विलेज का निर्माण। यह ईश्वर के नियम का उल्लंघन है, इसका खामियाजा इंसान की आने वाली पीढ़ियां जरूर भुगतेंगी, लेकिन आज इसके विपरीत दुनिया में कुछ ऐसे भी धार्मिक पर्यावरण प्रेमी हैं, जो धर्म के आधार पर पर्यावरण जागरूकता के लिए काम कर रहे हैं या फिर आजीवन इसके लिए वचनबध्द हैं और इसकी जीती-जागती मिसाल हैं ब्रिटेन केफजलुर खालिद। वे बर्मिंघम स्थित इस्लामिक फाउंडेशन फॉर इकोलॉजी एंड एनवायरमेंटल साइंसेज के संस्थापक हैं। यह एक अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संस्था है। फजलुर खालिद ने 80 के दशक में पर्यावरण संरक्षण और सतत् विकास से जुड़े मसलों पर इस्लामिक नंजरिए के प्रसार के लिए इसकी स्थापना की थी।
उनका मानना है कि वैश्विक आर्थिक विकास का जो मॉडल अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा अपनाया जा रहा है वह टिकाऊ नहीं है। जीवाश्म ईंधनों के खात्मे और पिछले 200 साल के दौरान हुए औद्योगिकीकरण ने दुनिया के महासागरों और जंगलों के बीच कार्बन विनिमय के उस वैश्विक संतुलन को बिगाड़ कर रख दिया है जो 200 मिलियन सालों के लंबे अरसे से चला आ रहा था। ब्रिटेन सरकार की महत्वाकांक्षा 2050 तक राष्ट्रीय कार्बन उत्सर्जन को 60 फीसदी तक गिराने की है, जबकि पर्यावरण से जुड़े ब्रिटेन केही वैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसा करना नाकाफी होगा, क्योंकि टिंडाल सेंटर ने अनिवार्य तौर पर 90 फीसदी कटौती का प्रस्ताव रखा था।
खालिद ने मौजूदा वाणिज्यिक गतिविधयां सतत् विकास की अवधारणा पर भी सवाल उठाया है। चीन और भारत की बड़ी आबादी और उनकी जीवनशैली के पश्चिमी मानकी की महत्वाकांक्षाओं की वजह से पृथ्वी के सीमित संसाधनों पर अत्यधिक दबाव बढ़ रहा है और स्थिति किसी बड़े संकट का कारण बन सकती है। पर्यावरण के मुद्दे को लेकर दोहरे मानदंडों पर भी लगातार सवाल उठते रहे हैं। मलेशिया जैसे कुछ देश यह सवाल उठा चुके हैं कि पर्यावरणीय आधारों पर उन्हें अपने जंगलों की कटाई करने और लकड़ी को आर्थिक संसाधन के रूप में इस्तेमाल करने से क्यों रोका जाना चाहिए, जबकिअरब देशों को जितना मर्जी उतना तेल निकालने की छूट दी गई है। इसलिए पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर गंभीरता से गौर करने की जरूरत है।
इन मसलों से निपटने में एक इस्लामिकनजरिया इस प्रस्थापना से आगे बढ़ता है कि इंसान ईश्वर और उसके द्वारा की गई सारी रचनाओं का ही एक हिस्सा है और इसलिए उसकेअधीन है, न कि वह इन पर अपना वर्चस्व कायम करता है। उन्होंने इस इस्लामिक सिध्दांत पर भी जोर दिया जो उन्हीं के शब्दों में-अपने भीतर के संकेतों और क्षितिज केसंकेतों पर ध्यान देना है- जिसका अर्थ इंसानी पारिस्थितिकी के आंतरिक और बाह्य आयामों और पर्यावरण व नैतिक अच्छाई के बीच एक संबंध स्थापित करना होता है। खालिद कुरान में दिए कुछ विचारों जैसे तौहीद यानी ईश्वरीय एकता, फितरा-प्रकृति, मीजान-संतुलन और खलीफा-कर्तव्य को मनुष्य और प्रकृति के बीच मजबूत संबंधों का पर्याय बताते हैं। उनकी संस्था मुस्लिम समुदाय के बीच रोजमर्रा के जीवन में मानक के तौर पर उपर्युक्त सिध्दांतों को अपनाए जाने की जरूरत के बारे में जागरूकता फैलाती है।
इसी तरह जंजीबार फाउंडेशन स्थानीय मछुआरा समुदाय के बीच टिकाऊ जीवनशैली का प्रचार करने के लिए अमेरिका के केयर इंटरनेशनल के साथ मिलकर काम कर रहा था। पहले इस इलाके के मछुआरे डायनामाइट चार्ज का इस्तेमाल करते थे जिससे कोरलरीफ नष्ट हो जाएं और मछलियों तक उनकी पहुंच बढ़ सके, लेकिन इससे समुद्र केपर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचता था। संस्था के सदस्यों ने मुछआरों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करते हुए उन्हें बताया कि अगर इसी तरह वे समुद्र के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब उन्हें एक भी मछली हासिल नहीं होगी।
दुनियाभर के लगभग सभी समुदायों के लोग पर्यावरण संरक्षण पर जोर तो देते हैं, लेकिन यह भी मानते हैं कि यह काम कोई आसान नहीं है। इसलिए इसके लिए सबको मिलकर काम करना होगा। खालिद ब्रिटेन की मुस्जिदों में जाकर नमाजियों को पर्यावरण संरक्षण के बारे में जानकारी देते हैं। इतना ही नहीं उन्हें गिरजाघरों में भी पर्यावरण मुद्दे पर संबोधन के लिए बुलाया जाता है। उनका कहना है कि मुसलमानों के मुकाबले ईसाई समुदाय के लोग उन्हें ज्यादा गंभीरता से लेते हैं। शायद इसकी एक वजह यह भी है कि अभी मुसलमानों में उतनी जागरूकता नहीं है, जितनी होनी चाहिए, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि खालिद का कार्य सराहनीय है और उम्मीद की जा सकती है कि एक न एक दिन उन्हें अपने इस नेक उद्देश्य में कामयाबी जरूर मिलेगी। अलबत्ता, भारत में भी इसी तरह के कार्यों को बढ़ावा दिए जाने की ज्यादा जरूरत है, ताकि दिनोंदिन प्रदूषित होते धरती के लिबास पर्यावरण को दूषित होने से बचाया जा सके। धरती के लिबास पर्यावरण की रक्षा करना हमारी नैतिक, धार्मिक और सामाजिक जिम्मेदारी भी है, जिसे हमें हर हाल में निभाना चाहिए।
ज़ाकिर हुसैन
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