महामना मदनमोहन मालवीय को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए धन की आवश्यकता थी। इसलिए वह समाज के संपन्न लोगों से मिलकर उनसे इस सत्कार्य में सहयोग की प्रार्थना करते थे।
मालवीय जी के एक मित्र उन्हें इसके लिए एक बड़े व्यापारी के घर ले गए। आवाज देने पर सेठ जी ने बैठक का दरवाजा खोला और दोनों अतिथियों को बैठाया। उस वक्त शाम हो जाने के कारण अंधेरा छाने लगा था। बैठक में बिजली नहीं थी, इसलिए सेठ जी ने अपने छोटे बेटे को लालटेन जलाने को कहा। बेटा लालटेन और दियासलाई लेकर आया। उसने माचिस की एक तीली जलाई, परंतु लालटेन तक आते-आते बुझ गई। इस तरह उसने तीन तीलियां बर्बाद कर दीं।
इस पर सेठ जी ने लड़के से नाराज होकर कहा, 'तुमने माचिस की तीन तीलियां बर्बाद कर दीं, कितने लापरवाह हो।' यह कहकर सेठ जी जब अंदर गए तो मालवीय जी ने अपने मित्र की ओर देखा, मानो कह रहे हों कि इस सेठ से कुछ पाने की आशा मत करो क्योंकि यह तो इतना कंजूस है कि माचिस की तीन तीलियां नष्ट हो जाने पर लड़के को डांटता है। संकेत में मित्र ने मालवीय जी से सहमति जताई और दोनों बैठक से बाहर निकले। इतने में सेठ जी आ गए।
वह चकित होकर बोले, 'अरे! आप चल क्यों दिए? बैठिए, काम तो बताइए।' मालवीय जी के मित्र ने आने का प्रयोजन बताया। सेठ जी ने पचीस हजार रुपये निकालकर रख दिए। मालवीय जी ने सेठ जी से कहा, 'अभी आपने लड़के को माचिस की तीलियां नष्ट होने की वजह से डांटा, जबकि उनका मूल्य नहीं के बराबर है। लेकिन हमें आपने तुरंत पचीस हजार रुपये दे दिए।'
सेठ जी हंसकर बोले, 'लापरवाही से छोटी से छोटी वस्तु को भी नष्ट नहीं करना चाहिए। लेकिन किसी शुभ कार्य में हजारों रुपये सहर्ष दे देने चाहिए। दोनों बातें अपनी जगह ठीक हैं। इनमें कोई विरोध नहीं।'
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