राम-रावण युद्ध समाप्त हो चुका था। रावण मृत्यु शय्या पर पड़ा अंतिम सांसें गिन रहा था। तभी उसने देखा कि लक्ष्मण उसकी ओर चले आ रहे हैं। लक्ष्मण उसके निकट आए और बोले, 'मेरे भाई श्रीराम आपसे ज्ञान की बातें सीखना चाहते हैं।'
आश्चर्य में भरकर रावण बोला, 'तुम्हारे भाई सर्वज्ञ हैं। मैं उन्हें क्या सिखा पाऊंगा। और फिर मैं तो उठकर चल भी नहीं सकता। मैं उनके पास कैसे पहुंच पाऊंगा।' लक्ष्मण ने कहा, 'आप इसकी चिंता न करें। मैं श्रीराम को यहां लेकर आ जाऊंगा।' श्रीराम आए। उनसे रावण ने विनम्रतापूर्वक कहा, 'हे सूर्यवंश के गौरव! मेरा प्रणाम स्वीकार करें। मैं राक्षस हूं, मैं आपको क्या सिखा पाऊंगा।' राम ने कहा, 'यह सच है कि तुम राक्षस हो, परंतु यह भी सच है कि तुम एक शक्तिशाली और बुद्धिमान शासक रहे हो। तुम्हें अच्छे और बुरे का ज्ञान है। मैं यह ज्ञान तुमसे प्राप्त करना चाहता हूं।'
रावण ने उन्हें उपदेश देना शुरू किया, 'अच्छे कार्यों को कभी नहीं टालना चाहिए। हो सकता है कि टालने के कारण उन कार्यों को करने का कभी अवसर ही न आए। मैंने सोचा था कि नरक का मार्ग बंद करवा दूंगा, ताकि किसी को परलोक में दु:ख न भोगने पडे़। दूसरा काम समुद्र के खारे पानी को निकाल कर उसे दूध से भर देने का था। तीसरा काम धरती से स्वर्ग तक सीढ़ी बनाने का था, जिससे पापी-पुण्यात्मा सभी स्वर्ग तक पहुंच सकें।' इतना कहकर रावण रुका। मृत्यु निकट होने के कारण उसकी बोलने की शक्ति कम होती जा रही थी।
हांफते हुए वह बोला, 'इन तीनों कार्यों को मैं कल पर टालता रहा और कल तो कभी आता नहीं। मैं इन कर सकने वाले कार्यों को कभी कर नहीं पाया।' रावण फिर थोड़ा ठहरकर बोला, 'अच्छे कार्यों को टालना जितना बुरा है, बुरे कार्यों को टालना उतना ही अच्छा। मां सीता का हरण करने में मैंने तत्परता दिखाई, लेकिन वह मुझे टाल देना चाहिए था।'
संकलन : स्वामी रामराज्यम्
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