Saturday, April 10, 2010

संकट को जीवन की पाठशाला मानो

आदमी संकट के नाम से ही घबराता है। संकट का आभास होते ही वह उससे बचने के उपाय करने लगता है। लेकिन संसार में शायद ही कोई ऐसा हो जिसने संकटों का सामना न किया हो। लेकिन अपने संकटों से कोई व्यक्ति जितने अधिक सबक सीखता है, वह जीवन में उतना ही सफल होता है।


मार्क रदरफोर्ड एक बहुचर्चित लेखक थे। बचपन में एक दिन वे समुद्र के किनारे बैठे थे। दूर समुद्र में एक जहाज लंगर डाले खड़ा था। उनके मन में जहाज तक तैरकर जाने की इच्छा बलवती हो उठी। मार्क तैरना तो जानते ही थे, कूद पड़े समुद्र में और तैरकर उस स्थान तक पहुंच गए जहां जहाज लंगर डाले खड़ा था। लेकिन जब वापस लौटने के लिए किनारे की तरफ देखा तो निराशा हावी होने लगी, वह दूर, बहुत अधिक दूर लगा।

मार्क ने लिखा है -मनुष्य जैसा सोचता है, उसका शरीर भी वैसा ही होने लगता है। कुविचारों के कारण मैं, एक फुर्तीला किशोर, बिना डूबे ही डूबा हुआ-सा हो गया। लेकिन अपने विचारों को जब मैंने निराशा से आशा की ओर धकेला, तो चमत्कार-सा होने लगा। शरीर में नई शक्ति का संचार हो रहा था। मैं समुद्र में तैर रहा था और सोच रहा था कि किनारे तक नहीं पहुंचने का मतलब है डूबकर मरने से पहले का संघर्ष। मेरा बल मजबूत हुआ, मेरे अपने ही विचारों से। जैसे मुझे संजीवनी मिल गई। पहले मन में भय था और अब विश्वास किनारे तक पहुंचने की क्षमता का। अपने उस विचार के सहारे ही रदरफोर्ड वापस लौटकर किनारे तक पहुंचने में सफल हुआ। मार्क ने लिखा -बिना साहस के मंजिल नहीं मिलती। बिना विश्वास के संकट से उबरा नहीं जा सकता। जब डूबना ही है तो संघर्ष क्यों न करें।

विचार की शक्ति अणु से भी महान होती है। विचार ही तो है जो मनुष्य को संकट में डालता है या फिर संकट से उभारता है। विचार ही मनुष्य को नैतिक बनाता है या पतित करता है। विचार पहले, क्रिया बाद में। कार्लाइल ने संकट को अनुभव माना है और इसे पाठशाला की संज्ञा दी है। उसने उदाहरण दिया है -अखाड़े में उस्ताद अपने शिष्य को बार-बार पटकनी देकर गिराता है, उसे चोट भी लगती है, मोच भी आती है, शरीर से धूल लगती है, थकान होती है, लेकिन बार-बार की पटकनी से ही शिष्य वह सीख पाता है जिसके लिए वह अखाड़े में आता है। मनुष्य अपनी समस्या का समाधान दूसरों से चाहता है। दूसरे लोग सहयोगी बन सकते हैं, उपाय सुझा सकते है, पर समाधान नहीं कर सकते। समस्याओं का उत्स व्यक्ति स्वयं होता है। समाधान भी स्वयं से मिलता है।


मार्ग में अवरोध भी आ सकते हैं। उन्हें उत्साह और साहस के साथ पार करना होता है। कहीं अपमान मिलता है, कहीं निराशा का कुहासा सामने आता है, कहीं असफलता सहचरी के रूप में दिखाई देती है, इन स्थितियों का सम्यक विश्लेषण इनसे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। लेकिन उसके अभाव में तात्कालिक आवेश और अविचारित निर्णय व्यक्ति को पीछे भी धकेल सकता है।


अधिकांश मनुष्यों के दुर्भाग्य का मूल कारण यही होता है कि उन्हें अपने ऊपर भरोसा नहीं होता। वे अपने भाग्य को ही कोसने में अपना बहुमूल्य समय नष्ट कर देते हैं। जो व्यक्ति अपने को निर्बल और कमजोर समझता है उस व्यक्ति को कभी विजय नहीं मिल सकती। अपने को छोटा समझने वाला व्यक्ति इस संसार में सदा कमजोर समझा जाता है। उस व्यक्ति को कभी वह उत्तम पदार्थ नहीं मिल पाते जो सदैव यह कहकर अपने भाग्य को कोसता है कि वह पदार्थ मेरे भाग्य में नहीं था।

प्रस्तुति : ललित गर्ग

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