Saturday, April 10, 2010

जीने का उत्साह

महर्षि रमण के आश्रम के नजदीक किसी गांव में एक अध्यापक रहते थे। रोज के पारिवारिक तनाव से वह बहुत ज्यादा दुखी हो गए थे। अंत में उन्होंने इस अशांति से मुक्ति पाने की सोची, किंतु आत्महत्या करने का निर्णय लेना उन्हें इतना आसान नहीं लगा। मनुष्य को अपने परिवार के भविष्य के विषय में भी सोचना पड़ता है। इसी ऊहापोह में वह महर्षि रमण के आश्रम में पहुंचे।


महर्षि को प्रणाम कर वह बैठ गए। फिर कुछ देर बाद उन्होंने आत्महत्या के बारे में महर्षि की राय जाननी चाही। रमण उस समय आश्रमवासियों के भोजन के लिए बड़े मनोयोग से पत्तलें बना रहे थे। अध्यापक के सवाल पर उन्होंने कुछ खास नहीं कहा। अध्यापक महोदय उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। उन्हें रमण का इस तरह पत्तल बनाना थोड़ा अटपटा लगा। उन्होंने साहस कर आखिर पूछ ही लिया, 'भगवन! आप इन पत्तलों को इतने परिश्रम से बना रहे हैं, लेकिन भोजन के बाद तो इन्हें कूड़े में फेंक ही दिया जाएगा।' महर्षि मुस्कराते हुए बोले, 'आप ठीक कहते हैं, लेकिन किसी वस्तु का पूर्ण उपयोग हो जाने के बाद उसे फेंकना बुरा नहीं है।


बुरा तो तब कहा जाएगा, जब उसका उपयोग किए बिना ही अच्छी अवस्था में उसे कोई फेंक दे। आप तो विद्वान हैं। मेरे कहने का तात्पर्य समझ ही गए होंगे।' इन शब्दों से अध्यापक महोदय की समस्या का समाधान हो गया। उनमें जीने का उत्साह आ गया और उन्होंने आत्महत्या का विचार त्याग दिया।

संकलन: लखविन्दर सिंह

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