Monday, March 1, 2010

एक उत्सव वासनाओं के बाहर आने का

कुछ लोग होली को अश्लील या असभ्य पर्व कहते हैं, लेकिन क्या वास्तव में रंगों से खेलने का यह त्योहार अश्लील या असभ्य कहा जा सकता है? यदि ध्यानपूर्वक अवलोकन करें तो जीवन में ऐसे क्षणों की भी आवश्यकता है, जब हम अपने मन में समाए बुरेभावों अर्थात विकारों और वासनाओं से मुक्त हो सकें। होली का हुड़दंग हमें यह अवसर उपलब्ध कराता है। इस अवसर पर हमारे अवचेतन मन में बैठे विकृत भाव या विकार किसी भी रूप में बाहर निकल कर हमें तनावमुक्त कर देते हैं।

हंसी मजाक़ या गाली-गलौज के माध्यम से ही सही, होली एक ऐसा अवसर है जो हमें अपनी भड़ास निकालने का अवसर प्रदान करता है। एक तरह से इस दिन पिछले पूरे साल की क्षतिपूर्ति का अवसर मिल जाता है। परिचितों के बीच संबंध सुधारने या मनमुटाव दूर करने तथा अपरिचितों से नए संबंध बनाने का यह एक अच्छा अवसर है। होली ही एक ऐसा त्योहार है जब कोई बुरा नहीं मानता। किसी को रंगों से सराबोर कर दीजिए और बदले में उससे मित्रता स्थापित कर लीजिए। कई बार गाल पर एक चुटकी गुलाल कमाल कर देता है।

होली के हुड़दंग का लाभ उठाते हुए हम ऊल-जलूल हरकतें करते हैं। करनी भी चाहिए। ये हरकतें हमें विकारों से मुक्त करने में सहायक होती हैं। होली के रंगों और हुड़दंग के माध्यम से जीवन में व्याप्त निराशाजनक विचारों से मुक्त होकर नए और उत्साहपूर्ण जीवन की शुरुआत संभव है। यह व्यक्ति के पुनर्जन्म जैसी अवस्था है। रंगोत्सव या फाग द्वारा विकृत काम की समाप्ति होती है। इस अवसर पर जो छूट का प्रावधान है, वह वास्तव में विकृत काम के रूपांतरण के लिए ही है। एक तरह से दमित वासनाओं और विकारों से मुक्ति का पर्व है रंगोत्सव।

भारत एक पुरुष प्रधान देश है। पुरुषों और स्त्रियों की सामाजिक स्थिति और उनके अधिकारों में काफी अंतर है। स्त्री को प्राय: क़दम-क़दम पर दबना पड़ता है। घर में भी, बाहर भी। होली के अवसर पर विशेष रूप से उत्तर भारत के ग्रामीण अंचलों में होली खेलते समय स्त्रियाँ पुरुषों पर कोड़े या डंडे बरसाती हैं। ब्रज की फूलों की होली के साथ-साथ नंदगांव बरसाने की लट्ठमार होली भी बहुत प्रसिद्ध है। इस अवसर पर स्त्रियाँ पुरुषों से साल भर का बदला ले लेती हैं। वास्तव में शोषित वर्ग को उसकी हीनता से मुक्ति प्रदान करने का पर्व भी है होली।

होली का हास्य से गहरा नाता है। इस दिन महामूर्ख सम्मेलन जैसे आयोजन किए जाते हैं। यहां भी हास्य के माध्यम से समाज या वर्ग विशेष के प्रतिष्ठित अथवा सशक्त व्यक्तियों को महामूर्ख की पदवी दे कर क्षेत्र विशेष में उनके प्रभाव या आतंक की पीड़ा से मुक्त होने का प्रयास किया जाता है। लोक जीवन या गांवों में होली के अवसर पर समाज के तथाकथित प्रतिष्ठित अथवा सशक्त या धनी व्यक्तियों का मजाक उड़ाने की पूरी छूट रहती है। इस अवसर पर हास्य के माध्यम से शोषित अथवा कमजोर वर्ग, चाहे वह निर्धन हो अथवा कमजोर जाति या लिंग का हो, वह अपनी भड़ास निकाल कर मुक्ति का अनुभव करता है।

मौसम की तरह मनुष्य का बदलना भी अनिवार्य है। हम भी बदलें। अपने भीतर समाए घातक मनोभावों से मुक्त हो जाएं। जिस प्रकार पेड़ अपनी पुरानी पीली पड़ गई पत्तियों को त्याग कर नई पत्तियाँ धारण कर पुनर्जन्म पाता है, हम भी नकारात्मक भावों से मुक्त होकर नए जीवन में प्रवेश करें। परिवर्तन के अभाव में यह पुनर्जन्म संभव नहीं। लोकजीवन से जुड़े सभी पर्व-त्योहार अथवा आयोजन लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत होते हैं, इसमें संदेह नहीं, क्योंकि ये सभी मनोवैज्ञानिक रूप से उपचार अथवा पुनर्जन्म का अवसर उपलब्ध कराते हैं। यही रंगोत्सव की भी प्रासंगिकता है।

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