Tuesday, March 9, 2010

परोपकार की भावना

गंगा के तट पर एक आश्रम था, जिसमें दूर-दूर से छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे। गुरु प्रत्येक शिष्य को स्नेह के साथ ज्ञान का पाठ पढ़ाते थे।

उन्होंने प्रत्येक शिष्य से व्यक्तिगत स्तर पर एक रिश्ता बना रखा था। वह उनके सुख-दुख के हर प्रसंग में गहरी रुचि लेते थे। शिष्य भी अपने गुरु से बहुत प्यार करते थे। वे उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करते थे। एक दिन कुछ शिष्यों को शरारत सूझी। वे गुरु के पास आए और बोले, 'गुरुदेव! हम गांव में एक चिकित्सालय खोलना चाहते है। हम सभी उसके लिए चंदा इकट्ठा कर रहे है। कृपया आप भी कुछ योगदान करें।'
गुरु ने शिष्यों की बात ध्यान से सुनी। फिर शिष्यों की ओर देखा। थोड़ा मुस्कराए और भीतर कुटिया में गए। कुछ ही पलों में लौटकर आए और शिष्यों से बोले, 'मैं तुम्हारी अधिक सहायता तो नहीं कर सकता, हां दक्षिणा में एक बार सोने के कुछ सिक्के मिले थे, जिन्हें आज तक किसी नेक काम के लिए संभालकर रखा था। ये तुम लोग ले लो।' शिष्य वे सिक्के लेकर चले गए। दूसरे दिन सभी शिष्य आश्रम में एकत्रित हुए।

 
जिन शिष्यों ने गुरु से सिक्के लिए थे, वे भी आए। बातों ही बातों में गुरु से सिक्के लेने की बात सामने आई और यह राज खुला कि कुछ शिष्यों ने मजाक में ऐसा किया है। कुछ वरिष्ठ शिष्यों को यह बहुत बुरा लगा। उन्होंने गुरु को बता दिया कि कुछ शरारती शिष्यों ने उनसे झूठ बोलकर सिक्के लिए हैं। इस पर गुरु ने पहले तो ठहाका लगाया फिर बोले, 'मुझे कल ही पता चल गया था कि वे झूठ बोल रहे है। परंतु उनकी परोपकार की भावना का सम्मान तो करना ही था। उनकी इस भावना का सम्मान करने के लिए ही मैंने उन्हें सिक्के दिए थे। विचार झूठा ही सही, उनमें परोपकार की भावना तो थी ही।' गुरु की बात सुनकर शरारती शिष्यों ने गुरु के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी।

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