बहुत पुरानी कथा है। एक राजा अपने राजसी दायित्वों से ऊब गए थे। वह जो भी करते, बेमन से करते। वह चाहते थे
कि किसी तरह राजपाट त्याग दें और ईश्वर का साक्षात्कार करें। एक दिन उन्होंने राजसिंहासन अपने उत्तराधिकारी को सौंपा और राजमहल छोड़कर जंगल की ओर चल पड़े। उन्होंने रास्ते में कई विद्वानों के साथ सत्संग किया, कुछ दिनों तक तपस्या की किंतु उनके भीतर अतृप्ति बनी रही। मन में खिन्नता का भाव लिए वह तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। एक दिन चलते-चलते वह काफी थक गए और भूख के कारण निढाल से होने लगे। वह पगडंडी से उतर एक खेत में रुके और एक पेड़ के नीचे बैठ सुस्ताने लगे। उन्हें देख एक किसान उनके पास जा पहुंचा। वह उनका चेहरा देखकर ही समझ गया वह थके होने के साथ भूखे भी हैं।
किसान ने हांडी में उबालने के लिए चावल डाले। चावल की हांडी को आग पर चढ़ाकर उसने राजा से कहा, 'उठो, यह चावल पकाओ, जब चावल पक जाएं तब मुझे आवाज दे देना। हम दोनों इससे पेट भर लेंगे।' राजा मंत्रमुग्ध होकर किसान की बात सुनते रहे। किसान के वहां से जाने के बाद उन्होंने चावल पकाने शुरू कर दिए। जब चावल पक गए, तो उन्होंने किसान को बुलाया और दोनों ने भरपेट चावल खाए। भोजन करने के बाद किसान काम में लग गया और राजा को ठंडी छांव में गहरी नींद आ गई। उन्होंने स्वप्न में देखा कि एक दिव्य पुरुष खड़ा होकर कह रहा है, 'मै कर्म हूं और मेरा आश्रय पाए बगैर किसी को शांति नहीं मिलती। राजन, तुम भी पुरुषार्थ करो और अपना लक्ष्य प्राप्त करो।' नींद खुलने पर राजा ने सपने पर विचार किया तब उन्हें कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा मिली। वह वापस अपने राज्य लौट गए। उन्होंने जनकल्याण को अपना लक्ष्य बना लिया और उसी में रम गए। इससे उन्हें आत्मिक शांति मिली। उन्हें लगा कि यही वह लक्ष्य था जिसे वह अब तक ढूंढ रहे थे।
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