Thursday, March 25, 2010

योगी से पहले उपयोगी बनो

आज के इस दौड़ते-भागते जीवन में हम शब्दों का प्रयोग तो करते हैं, लेकिन उसके भीतर छुपे ज्ञान को

नजरअंदाज़ कर देते हैं। किसी भी भाषा में कोई भी शब्द यदि विद्यमान है तो उसके पीछे कोई न कोई दर्शन अवश्य होगा। जैसे हम सबको 'व्यक्ति' कहा जाता है; जिसका अर्थ है -वह जो व्यक्त है। अब से कुछ समय पहले तक हम अव्यक्त थे, कुछ समय बाद हम पुन: अव्यक्त हो जाएंगे। लेकिन अभी इस संसार में हम व्यक्त है।
इसी प्रकार किसी भी भाषा में जो भी शब्द हैं - चाहे वे संस्कृत से हों या लैटिन से, उन सब शब्दों का विकास किसी अवधारणा के आधार पर होता है। बात शब्दों के भंवर में फंसने की नहीं है, बल्कि उन शब्दों के माध्यम से इस संसार भंवर से पार लगने की है। आज हम जिस शब्द की बात करने जा रहे हैं, वह शब्द है योगी।
अक्सर देखा गया है कि मंत्री पहले उपमंत्री बनता है, आयुक्त से पहले उपायुक्त बनता है। इस तरह हमारा उत्तरोत्तर विकास होता है। तो विचार करें कि योगी बनने से पहले योगी क्या बनता है? भारत योगियों का देश है। उन्हें भगवान स्वरूप माना जाता है। कृष्ण को भी योगी राज कहा जाता है। लेकिन कृष्ण कहते हैं कि पहले लोक कल्याण के लिए कर्म करो। पहले समाज के लिए उपयोगी बनो, फिर योगी बनो।
इस संसार में चार तरह की वृत्तियां हैं- खनिज, वनस्पति, पशु और मनुष्य। इन सबकी परिधि अर्थात् सीमा तय है। खनिज वस्तुएं बिना बाहरी सहयोग के एक जगह से दूसरी जगह नहीं जा सकतीं। वनस्पतियों में जन्म, मृत्यु और जरा जैसी गतियां हैं, परंतु वे पशु जगत की तुलना में नगण्य हैं। पशु जगत का आधार अधिक व्यापक है, परंतु मनुष्य की परिधि असीमित है।
इस विचार को आगे बढ़ाते हुए अगर हम अपने आसपास नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि मनुष्य खुद भी कुछ हद तक इन्हीं विभागों में बंटा हुआ है। कुछ लोग पूर्णत: स्वार्थमय जीवन जीते हैं। उनके लिए स्वयं का सुख सर्वोपरि है। घर, परिवार, समाज का विचार भी उनके मस्तिष्क में नहीं आता। आता है तो केवल अपने शरीर का सुख। इस तरह के मनुष्य को हम खनिज मानव कह सकते हैं।

 
इसके बाद परिवार में आसक्त व्यक्ति की बात करते हैं। वह भी मूलत: स्वार्थी है। परंतु उसने अपने जीवन की परिधि अपने से बढ़ा कर परिवार तक कर दी है। वह परिवार या बच्चों के लिए कोई त्याग करने का विचार पाल लेता है। ऐसा व्यक्ति परिवार के लिए उपयोगी होता है और उसे हम वनस्पति मानव की संज्ञा दे सकते हैं।
कोई व्यक्ति जब अपनी परिधि को और विस्तार देता है तो निजी स्वार्थ को त्याग कर अपने समाज या देश के लिए सोचता है। वह समाज व देश के लिए उपयोगी बनता है। ऐसा व्यक्ति पूरे समाज के उत्थान के लिए कार्य करता है। और अंत में आता है संपूर्ण पुरुष, जो समाज और देश की सीमाओं से भी ऊपर उठ कर पूरी मानवता के विषय में सोचता है। इसी तरह के व्यक्ति के लिए कहा गया है -
कबीरा खड़ा बजार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।
आज हम समाज में योगी तो बहुत देखते हैं, परंतु क्या वे समाज के लिए उपयोगी हैं? संन्यास लेने का अर्थ यह भी नहीं है कि संन्यास लेकर जंगल चले जाएं। संन्यास एक मान्य प्रथा है, लेकिन हममें से कितने लोग इसके अधिकारी हैं? यदि अपने सांसारिक कर्त्तव्य हम पूरी दक्षता से तथा आसक्ति रहित होकर करें, तभी हम संन्यासी तथा योगी बनने के अधिकारी हैं। इसलिए योगी से पहले उपयोगी बनें।

:-आचार्य शिवेन्द्र नागर

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